हमारे ठौर में मिलने सदा ही आते जाते हैं,
ज़रा मौका मिले दावत बिना चूके उड़ाते हैं।
कभी दिन में लुफ्त लेने चले डिस्को गली वाली,
जहाँ किरदार की लागत गिनाकर वोट जुटाते हैं।
यही मुश्किल है आखिर तक विचारों का मनन हो भी,
दिलों में हम गरीबों के लिए अवसर गँवाते हैं।
ये भी सच है कि उन्हें भूलने की आदतें अधिक
सभी नेता तभी तो घूमने हरिद्वार जाते हैं।
कि सौदागर नहीं तो फिर झाड़ चढ़ते चने की क्यों,
अहम की बात में खुद टाँग अपने ही अड़ाते हैं।
दोहा-दशक
ठंड बहुत है नकचढी,बचा लो अब जुकाम।
ओढ़ इंदु कम्बल नया,करना मत कुछ काम।।१
अम्मा सेकें रोटियांँ, सुबक रहा है लाल।
देख सताना पूत का, रीझ झड़ी चट गाल।।२
फिर जा रोते बिलखते, बैठा बहिनी पास।
कानों में फुसफुस करे, आलू चोखा खास।।३
भूख लगी जोरों लगी, मांगें रोटी एक।
बिन सब्जी ही दो सही,कंबल देता फेंक।।४
खैर नहीं अब इन्दु की, थर्राती है काँप।
झल्लाती आ-वेग में, भागा भैया भांँप।।५
अम्मा तब रसोई में, जला गयी निज हाथ।
दौड़ पड़े सुन तात भी, ले कर रिमोट साथ।।६
दुबक गये बच्चे वहीं,कंबल ओढ़े तीन,
बिल्ली बैठी गोद में,कौन बजाये बीन।।७
तिरछी आँखो देख का, ऐसा कुछ आनन्द।
थाल परोसी पूत को , जैसे परमानन्द।।८
चिढ़ा रहा बहिनी दिखा, गरम गरम ले खौर।
खाओ भैया तुम गरम, कहती वह मुंँहजोर।।९
सिमरन करता राज़ है, बचपन अपनी बात।
तब जा बैठा संग में, आसन धर के साथ।।१०
रामा श्रीनिवास राज़, 'खड़गपुरी'
बेंगलुरु,
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